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परिधि……….

शिरीष के फूल
शिरीष के फूल
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जब भी देखता हूँ
खुद को एक परिधि
में पाता हूँ ।
जिसका निर्माण मैंने
खुद नहीं किया था ।
समाज के अवसाद
और
विकृत तार्किक
ख्यालों ने
मेरे चारों ओर एक घेर
बना दिया है ।
जिसे मैं परिधि
कह रहा हूँ ।
मुझे लगता है की मेरे
पूर्वजों का भी जन्म
इसी में हुआ होगा !!!
पर क्यों उन्होने इसे
मान लिया ?
इसे मिटाने का प्रयास
क्यों नहीं किया ?
क्योंकि शायद उन्हे
पसंद आता होगा की ,,
निम्न लोग(जिन्हे वो समझते थे )
उनके सामने चप्पल माथे पर
रख कर जाए ………
जिससे वो अपने उच्च कूलीन के
होने की परिभाषा दे सके !!!!!!
पर वर्तमान की स्थिति क्या है ?
मेरे साथ …. वो पूर्वज क्या जाने ?
वो छः धागे जो मेरे कंधे से
कमर तक झूलता है ,,
उसे देख ,मेरे (शायद पूर्वज )के
अपराधी होने का बोध कराते हैं ….
वो (निम्न -जिसे पूर्वज समझते थे )
इस घेरे की दीवार इतनी बुलंद ,,
और ऊंची है ।
कई बार प्रयास किया हूँ निकालने का
पर ,,,,,,
इसकी चुभनशील सतह से छील
जाता हूँ मैं ॥
टूट जाता हूँ मैं ,,,,,,
एक अप्रियता झलकती है ,
उनके चेहरे से मेरे प्रति ,,
उनकी साँसों से एक बू आती है
हीनता की ……..कोई कैसे समझाये ,,
कोई कैसे भेदे ….
मैं तो अवसादों मे जन्मा ,,पला …बढ़ा ॥
पर मैं चाहता हूँ ,,अपना सारा कुछ
लेकर जाऊँ ,,
बस इतना छोड़ जाऊँ …
की मेरी भविष्य की पीढ़ी को
अपमानित न होना पड़े ……..

………………..राहुल पाण्डेय “शिरीष”

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