शिरीष के फूल
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वो पल जब अलग हुई
साँसो की भाषा ,
जब आलिंगन की बेहोशी से
उठ
दो भिन्न दिशाओं को ,चल
दिये थे हम ।
किसी अंजान से ब्रह्मांड में ,
एक धूधली सी परछाई मे
चल ,पड़े थे हम ।
एक अज्ञात भविष्य ,
सामने मुह फाड़े खड़ा था ,,
और भीतर
का कोमल कंपन करता
हृदय
अंतिम याद को संजोने
पीछे मुड़ना चाहता था ।
एक रेखा जो दूरी की
इकाई बनती जा रही थी ,
बढ़ती चली जा रही थी ।
कम करना ,,मिटाना मुश्किल था
इसके
दोनों छोरो पर
अवसादों की खोखली दलीले थी ,
व्यर्थ के आंसुओं से बुझती दीपे थी ।
दूरी बढ़ाती रेखा का विस्तार
“अखंडता का परिचायक था”
भावों की हत्या थी ।
.
.
दोनों तरफ घसीटे जाते
दो उन्मादी जा रहे थे ,,
जिन पर संस्कृति
के हनन का
आरोप था ……
…..राहुल पाण्डेय “शिरीष”
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