शिरीष के फूल
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मांगती है
यह धरा
अब इक नई आकाश-गंगा
और नया ही चांद-सूरज
चाहती है मुक्त होना
सतत् इस दिन-रात से
छोड़ उजियारे पराए
निज के अंधियारे जलाए
हो के ताज़ा दम ये धरती
स्वयं अपना सूर्य होना चाहती है
चाहती है तोड़कर
जीर्ण सारी मान्यताएँ
ख़ुद रचे इक सौर्य-मंडल
ख़ुद से नभ-तारे बनाए
काटती चक्कर युगों से
अब स्वयं यह केन्द्र होना चाहती है
चाह कर भी चाह ना पाई कभी जो
मुक्त होकर उस रुदन से
— विवेक मिश्र
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